Monday, October 10, 2011

सड़क और माँ

बात कल शाम की है
सड़क पार करते समय
मेरी चाल कुछ धीमी पड़ गयी
और फूल गयी मेरी सांसें
एक कतार से आती हुई गाड़ियों को देखकर
सकपका गया मैं 
याद आई मुझे मेरी माँ
जो मेरा हाथ पकडती थी,
मैं निर्भीक सड़क पार करता था
आज मैंने देखा
मेरी माँ कहीं नहीं थी 
अंगुली मेरी पकड़ने के लिए
डबडबा आई मेरी आंखें
में हमेशा सोचता, कहता और झगड़ता था
सड़क अकेली पार करने के लिए
आज मैं अकेला था 
और सामने एक अंतहीन सड़क  

1 comment:

  1. वाक़ई,ज़िंदगी की सड़क पर अकेले ही चलना होता है .माँ नहीं होती है अंतहीन तन्हाइयां ही होती हैं .बहुत ख़ूब.

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